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Showing posts from March, 2025

तृतीय नवरात्र (माँ चंद्रघंटा)

  तृतीय नवरात्र (माँ चंद्रघंटा) नवरात्रि के तीसरे दिन माँ चंद्रघंटा की पूजा-अर्चना की जाती है। यह दिन शक्ति, साहस और करुणा का प्रतीक है। माँ चंद्रघंटा अपने भक्तों की रक्षा करती हैं, उनके कष्ट हरती हैं और जीवन में सुख-समृद्धि का संचार करती हैं। ऐसा माना जाता है कि जो भी श्रद्धा और विश्वास के साथ माँ की उपासना करता है, उसकी सभी मनोकामनाएँ पूर्ण होती हैं। यदि आप माँ चंद्रघंटा की कृपा पाना चाहते हैं, तो विधि-विधान से उनकी पूजा करें और उनकी कथा का श्रवण अवश्य करें। यह कथा हमें न केवल माँ की महिमा का बोध कराती है, बल्कि यह भी सिखाती है कि जब अधर्म और अन्याय अपने चरम पर पहुँच जाता है, तब माँ शक्ति स्वयं अवतरित होकर धर्म की रक्षा करती हैं। व्रत कथा: माँ चंद्रघंटा का पराक्रम बहुत समय पहले की बात है। धरती से लेकर स्वर्ग तक महिषासुर नामक असुर का आतंक बढ़ता ही जा रहा था। वह बहुत बलशाली था और उसे ब्रह्माजी से वरदान प्राप्त था कि कोई भी देवता या पुरुष उसे नहीं मार सकता। इस अजेयता के कारण वह अहंकारी हो गया और तीनों लोकों पर अपना अधिकार जमाने लगा। महिषासुर ने सबसे पहले धरती पर अपनी दुष्ट स...

माँ चंद्रघंटा

  माँ चंद्रघंटा: शांति और शौर्य की देवी बहुत समय पहले की बात है, जब संसार में दानवों और राक्षसों का आतंक बढ़ता जा रहा था। वे निर्दोष लोगों को सताते, यज्ञ और तपस्या में विघ्न डालते, और धर्म का उपहास उड़ाते। देवता भी उनके अत्याचारों से भयभीत हो उठे और सभी ने देवी शक्ति की आराधना की। उनकी प्रार्थना सुनकर, माँ दुर्गा ने अपने तीसरे स्वरूप—माँ चंद्रघंटा—का प्रकट किया। शौर्य और सौम्यता का संगम माँ चंद्रघंटा का दिव्य स्वरूप स्वर्ण के समान चमकीला था। उनके मस्तक पर घंटे के आकार का अर्धचंद्र विराजमान था, जिससे वे चंद्रघंटा कहलाईं। उनके दस हाथों में अलग-अलग शस्त्र शोभायमान थे, और वे अपने सिंह पर सवार थीं। जब उनका घंटा बजता, तो उसकी भयंकर ध्वनि से बड़े-बड़े असुर थर्रा उठते। किंतु जो भी भक्त श्रद्धा और प्रेम से माँ के दर्शन करता, उसे अद्भुत शांति और सुरक्षा का अनुभव होता। राक्षसों का विनाश देवताओं की प्रार्थना पर माँ ने अपने अद्भुत तेज और पराक्रम से दानवों के सेनापति महिषासुर और उसके सैन्यबल को पराजित कर दिया। जैसे ही उनका घंटा निनादित हुआ, युद्धभूमि में अराजकता फैल गई। दुष्टों की सेना...

माँ ब्रह्मचारिणी: शक्ति, संयम और साधना की देवी

  माँ ब्रह्मचारिणी: शक्ति, संयम और साधना की देवी एक समय की बात है, जब पृथ्वी पर अधर्म और अज्ञानता बढ़ रही थी। चारों ओर अशांति का माहौल था, और लोग सच्चे ज्ञान और संयम से दूर होते जा रहे थे। ऐसे समय में, देवी शक्ति ने माँ ब्रह्मचारिणी के रूप में प्रकट होकर साधना, संयम, और ज्ञान का मार्ग दिखाया। माँ ब्रह्मचारिणी का जन्म राजा हिमालय के घर हुआ था। उन्होंने कठिन तपस्या और साधना के बल पर अपार शक्ति प्राप्त की। वे कठोर नियमों का पालन करती थीं, और उनका संपूर्ण जीवन ब्रह्म की साधना में समर्पित था। वे अन्न-जल त्यागकर वर्षों तक तपस्या करती रहीं। उनकी साधना से देवता, ऋषि-मुनि और स्वयं ब्रह्म भी प्रभावित हुए। उनकी साधना से प्रसन्न होकर भगवान शिव ने उन्हें अपनी अर्धांगिनी के रूप में स्वीकार किया। माँ ब्रह्मचारिणी का जीवन यह सिखाता है कि संयम, साधना और धैर्य से किसी भी लक्ष्य को प्राप्त किया जा सकता है। वे शक्ति का वह रूप हैं जो विनम्रता और सहनशीलता से संपूर्ण सृष्टि को नियंत्रित करती हैं। उनका स्वरूप हमें यह प्रेरणा देता है कि क्रोध और अहंकार को त्यागकर हमें प्रेम, धैर्य और आत्मसंयम का मार्...

जब सती बनीं शैलपुत्री

  माँ शैलपुत्री: शक्ति, भक्ति और विश्वास का प्रथम स्वरूप नवरात्रि के शुभ अवसर पर माँ दुर्गा के नौ रूपों की पूजा की जाती है, और इस पावन पर्व की शुरुआत माँ शैलपुत्री की आराधना से होती है। हिमालय की पुत्री होने के कारण इन्हें शैलपुत्री कहा जाता है। इनके एक हाथ में त्रिशूल और दूसरे में कमल सुशोभित है, और वृषभ पर विराजित यह देवी भक्तों को साहस, धैर्य और प्रेम का आशीर्वाद देती हैं। माँ शैलपुत्री केवल शक्ति की अधिष्ठात्री ही नहीं, बल्कि करुणा और भक्ति की मूर्ति भी हैं। जब सती बनीं शैलपुत्री कहते हैं, प्रेम में अपमान सबसे बड़ा दुःख होता है। यही दुःख देवी सती के हृदय को भी चीर गया था। प्रजापति दक्ष ने एक विशाल यज्ञ का आयोजन किया था। उन्होंने सारे देवी-देवताओं को आमंत्रित किया, परंतु भगवान शिव को न्योता तक नहीं भेजा। सती यह समझ रही थीं कि यह उनके पति का अपमान है, फिर भी मन में एक आस थी—शायद भूल से न्योता न गया हो, शायद पिता का हृदय बदल जाए। उन्होंने भगवान शिव से यज्ञ में जाने की अनुमति मांगी। शिव जानते थे कि वहाँ सती का अपमान होगा, इसलिए उन्होंने मना किया। लेकिन सती का मन व्याकुल था—...

पुण्यों का मोल

  पुण्यों का मोल एक व्यापारी था, जो जितना धनी था, उतना ही दान-पुण्य में भी आगे रहता था। वह सदैव यज्ञ-पूजा और धार्मिक कार्यों में संलग्न रहता। लेकिन एक दिन ऐसा आया जब उसने एक विशाल यज्ञ में अपना सब कुछ दान कर दिया। अब उसके पास परिवार चलाने के लिए भी धन न बचा। पत्नी का सुझाव पत्नी चिंता में पड़ गई। उसने कहा, “अब घर में अनाज तक नहीं बचा। कुछ सोचना होगा।” व्यापारी ने धीरे से कहा, “मैंने सब कुछ धर्म-कर्म में लगा दिया। अब तो बस ईश्वर का सहारा है।” पत्नी ने एक उपाय सुझाया, “पड़ोस के नगर में एक सेठ हैं, जो पुण्य खरीदते हैं। आप उनके पास जाइए और अपने कुछ पुण्य बेचकर धन ले आइए। कम से कम घर का खर्च तो चलेगा!” व्यापारी अचरज में पड़ गया, “पुण्य भी कोई बेचने की चीज़ है?” पत्नी बोली, “और कोई उपाय है क्या?” व्यापारी के मन में यह विचार अजीब लग रहा था, लेकिन बच्चों के भूख से बिलखते चेहरे याद आए तो उसकी आत्मा कांप उठी। वह तैयार हो गया। पत्नी ने जाते समय चार रोटियाँ बाँध दीं और कहा, “रास्ते में भूख लगे तो खा लेना।” कुतिया और उसकी संतान लंबी यात्रा के बाद व्यापारी नगर के समीप पह...